डेरी पशुओं की उचित व्यवस्था एवं रखरखाव

डॉ. निपुणा ठाकुर; डॉ. गीतांजलि सिंह; डॉ. अंजलि सोमल; डॉ. ऋषिका विज

परिचय

डेरी व्यवसाय के कुशल प्रबंधन एवं पशुओं से उपयुक्त मात्रा में दूध प्राप्त करने के लिए, दुधारू पशुओं का उचित रख-रखाव व खान-पान की व्यवस्था पर्याप्त रूप से करना बहुत जरूरी होता है। अधिक मात्रा में दूध देने वाले देसी एवं विदेशी नस्लों के पशु, वातावरण से होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के प्रति, अति संवेदनशील होते हैं और इसका विपरीत प्रभाव, पशु के चारा ग्रहण करने की मात्रा, बेसल चयापचय (बेसल मेटाबोलिज्म), अंतर्ग्रहण को पारित करने की दर, रख-रखाव की आवश्यकताओं, उत्पादन आवश्यकताओं एवं पशु के प्रजनन दर, आदि पर पड़ता है। पशुओं की प्रजनन क्षमता, चारा रुपांतरण दर और आवास व्यवस्था के दृष्टिकोण से उपयुक्त देखभाल किए जाने से, डेरी व्यवसाय में अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं।

प्रस्तुत लेख में डेरी पशुओं की पालन व्यवस्था के कुछ आयामों पर प्रकाश डाला गया है:-

1. डेरी पशु का चुनाव

पशुओं की दूध उत्पादन क्षमता मुख्य रूप से पशु की अनुवांशिक क्षमता (जेनेटिक पोटेंशियल) अथवा नस्ल पर निर्भर करती है। अधिक दूध देने वाली देसी नस्ल की गायों (साहीवाल, गिर, सिंधी), देसी भैंसों (मुर्राह, सुरति, नीलीरावी, आदि) व विदेशी नस्ल की गायों (जर्सी, होल्सटीन, ब्राउनस्विस, इत्यादि) और इनकी क्रॉस ब्रेड गायों का चुनाव किया जाना चाहिए। देसी व विदेशी नस्लों के पशुओं के पार-प्रजनन (क्रॉसब्रीडिंग) के द्वारा, देसी नस्लों के दूध की मात्रा एवं उत्पादकता और विदेशी नस्लों के पशुओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता, गर्म प्रदेशों में रहने की अनुकूलन क्षमता व आजीविता को बढ़ाया जा सकता है।

2. प्रजनन प्रबंधन

डेयरी उद्यम के सफल संचालन के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि वर्ष के अधिकांश भागों में दुधारू पशुओं की अधिकतम संख्या दूध देती रहे। डेयरी पशुओं के उचित प्रजनन प्रबंधन से हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं । प्रजनन, गर्भाधान, गर्भधारण और बाद में अधिकतम दूध लेने के लिए, डेयरी जानवरों का सकारात्मक ऊर्जा संतुलन में होना बहुत आवश्यक होता है।

3. पशु आवास व्यवस्था

पशु आवास की संरचना, भी दुग्ध उत्पादन पर खासा प्रभाव ड़ालती है। उचित पशु आवास संरचना, पशुओं को जलवायु संबंधित परिवर्तन, से होने वाले आघात से बचाती है।

पशु आवास को बनाते समय कुछ निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

  1. पशु आवास आरामदायक, रोशनी, धूप व हवा युक्त होना चाहिए ।
  2. पशु आवास में दूध लेने, चारा डालने तथा सफाई करने के लिए उचित प्रबंधत एवं निकास क्षेत्र होना चाहिए ।
  3. पशु प्रवास की दिशा-संरचना
  4. गरम प्रदेशों में पशु आवास, उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर स्थित होने चाहिए, जो सौर विकिरण के प्रभावों को कम करते हैं ।
  5. ठंडे प्रदेशों के पशु आवास का मुख, पूर्व से पश्चिम की दिशा की ओर स्थित होना चाहिए। इससे दिनभर पशु आवास में धुप का प्रवाह रहेगा, जो संचित होकर रात्रि में भी, पशु आवास को गर्म रखेगा और ठंड के दुष्प्रभावोँ से, पशुओं का बचाव करेगा ।
  6. 20 से 30 (25) डिग्री सेल्सियस का तापमान पशु के लिए सबसे आरामदायक होता है, और इस सुविधा क्षेत्र (कम्फर्ट जोन) में, दुग्ध उत्पादन भी सबसे अधिक होता है। इसलिए कोशिश करनी चाहिए, कि पशु आवास का तापमान, इसी सीमा के आस-पास बना रहे ।
  7. खुले पशु आवासों में, 5-6 फुट की दीवारें बनाए जाने से, यह पशुओं को सीधी ठंड, धूप, गर्म हवा व जंगली जानवरों से बचाया जा सकता है ।
  8. गर्मी के मौसम के दौरान, पशु घर में बिजली से रोशनी और पंखे लगाने से, 1-2 किलो दूध ज्यादा लिया जा सकता है और गर्म वातावरण के तनाव को कम किया जा सकता है ।
  9. गर्मी के मौसम में, पशुओं को ठंडा रखने के लिए, पशु पर पानी का छिड़काव किया जा सकता है। इसके लिए पानी के फव्वारे, पाइपलाइन इत्यादि, पशु आवास में लगवाए जा सकते हैं।
  10. पशु घर और इसकी फिटिंग में ऐसी कोई भी नुकीली वस्तु या व्यवस्था न हो, जिससे पशु की खाल, टांगों या थनों को नुकसान पहुँच सके ।
  11. पशु घर के फर्श फिसलने वाले नहीं होने चाहिए। अधिमानतः यह ठोस व दरदरे पदार्थों के बने होने चाहिए, जिससे पशु पैर जमाकर, खड़ा हो सके ।
  12. आवास में हानिकारक जीवाणुओं एवं रोगाणुओं के नियंत्रण हेतू, नियमित रूप से चूने व फिनाइल का छिड़काव किया जाना चाहिए ।
  13. सोडियम हाइपोक्लोराइट/ब्लीच (पानी में 0.2-0.5 % घोल), क्वांटर्नरी अमोनियम कीटाणुनाशक, अम्लीय और क्षारक सफाई यौगिक, इत्यादि जैसे अत्य-प्रभावी कीटाणु नाशकोँ का इस्तेमाल भी कुछ अंतराल बाद, करते रहना चाहिए ।
  14. नियमित रूप से पशु आवास से, मल-मूत्र की सफाई एवं निकास करते रहना चाहिए। जिससे मल-मौखिक (फ़ीको-ओरल) मार्ग से होने वाले संक्रमणों से, पशु समूह के अन्य सहयोगी पशुओं को सुरक्षित रखा जा सके।

4. पर्यावरण तनाव सम्बंधित व्यवस्था

पर्यावरण तापक्रम, पशुओं की सूखे पदार्थों को ग्रहण करने और पानी पीने की क्षमता को प्रभावित करता है। इस से पशुओं की उत्पादकता और दूध उत्पादन की क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। गर्मियों में पशुओं को दाना या फीड, थोड़ी कम मात्रा में खिलाना चाहिए, जिससे पशु के शरीर में ऊर्जा का प्रवाह, शरीर के तापमान को असहज स्तर तक न बढ़ा सके।

  • वहीँ सर्दियों के मौसम में पशु का कंसन्ट्रेट फ़ीड भत्ता कुछ बढ़ाया जा सकता है, जिससे पशु का शारीरिक तापमान सामान्य बना रहे, और ठंड से बचाव हो सके।
  • गर्मियों में पशुओं को खुली मात्रा में ठंडा पानी और सर्दियों में थोड़ा कोसा पानी देना चाहिए, जिससे पशु के शरीर का तापमान सामान्य रखा जा सके।
  • गर्मियों में पशु-शालाओं को ठंडा रखने के लिए, फर्श पर रेत व आवास में पंखे भी लगाए जा सकते हैं, अत्यधिक गर्मी में पशुओं को नहलाना और उनके ऊपर पानी का छिड़काव भी किया जा सकता है।
  • सर्दियों में ठण्ड के आघात से पशुओं को बचाकर, दूध उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए पशु आवासों को गर्म रखने के प्रयास करने चाहिए और ठंडी हवा से सुरक्षित गोशालाओं में रखना चाहिए। अधिक ठंड होने पर हीटर इत्यादि का प्रयोग भी किया जा सकता है।
  • अधिक्तम देखा गया है, की पशु ठंड के प्रति, गर्मी की उपेक्षा, कुछ सहिष्णु होते हैं, और बहुत ही कम तापमानों में (माइनस से भी नीचे) लम्बे समय तक, खुले रह जाने पर ही, ठंड के विपरीत प्रभावों को प्रत्यक्ष रूप से, महसूस व प्रकट कर पाते हैं।

5. चारा व्यवस्था

चारा घटकों की मात्रा और गुणवक्ता दुग्ध संयोजन के लिए ज़रूरी होती है और रक्त में दूध बनाने वाले अग्र-दूत पदार्थों (मिल्क प्रीकर्सर) की मात्रा को भी प्रभावित करती है। यदि पशु का एक वक़्त का चारा भी देने से रह जाए, तो यह अगले दोहन काल पर दूध की मात्रा को कम कर सकता है।

6. स्वास्थ्य की निगरानी

बीमार पशुओं में शारीरिक असंतुलन आ जाने के कारण, पशु की उत्पादन क्षमता पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस लिए दूध देने वाले पशुओं का बीमारी मुक्त होना बहुत ही अनिवार्य है ।

  • समय समय पर पशुओं की जाँच कर, किसी भी बीमारी के होने अथवा फैलने की संभावनाओं को दूर करते रहना चाहिए ।
  • सभी दूध देने वाले पशुओं को साफ सुथरे व कीड़े, मख़ी, कीटाणु रहित आवास स्थान में रखना चाहिए।
  • उचित वेक्सिनेशन, कृमिनाशन (डीवॉर्मिंग), ठीक समय पर रोगों की रोक-थाम, पशुओं की प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखते हैं ।
  • इससे मेसटाइटस (स्तन की सूजन), गलघोटू, रिंडरपेस्ट, खुर-मुहि (ऍफ़. एम. डी.), वेक्टर जनित रोग, इत्यादि  की घटनाओं को कम किया जा सकता है और दूध उत्पादन को भी सामान्य रखा जा सकता।

7.स्वच्छ दुग्ध उत्पादन

1) दूध निकालने का स्थान साफ़, सूखा और आरामदायक होना चाहिए।

2) पशु को दोहने से पूर्व, उसके अयन को साफ़ पानी, और अधिक गंदा होने पर, पोटैशियम परमैंगनेट (नीला थोथा दवाई) 0.5-1 %; डेटॉल, आदि कीटाणुनाशकों से धोकर साफ़ करें। और प्रत्येक पशु के लिए अलग तौलिए का प्रयोग करें

4) स्वस्थ पशुओं का दूध सबसे पहले निकाल कर, दूध की पहली धार की गुणवक्ता को चैक करना चाहिए। बीमार, रोगग्रस्त और थनैला रोगग्रस्त, पशुओं का दूध अंतिम में निकालना चाहिए।

5) दूध निकालने के आधे घंटे बाद तक पशु को बैठने नहीं देना चाहिए। दूध निकलने के 24-30 मिनट बाद तक थनों के सुराख़ खुले रहते हैं, जिसके हानिकारक बैक्टीरिया (जीवाणु) थनों के छिद्रों में प्रवेश कर जाते हैं और अयन में संक्रमण हो सकता है।

8. दुधारू पशुओं के दूध को सुखाना

दुधारू पशुओं की वर्तमान दूध लेने की अवधि से अगली दूध लेने की अवधि में, कम से कम 8 हफ्ते तक का अंतराल (ड्राई पीरियड) होना चाहिए, जिससे दुग्ध बनाने वाली ग्रंथियों के विकास की बहाली हो सके, और वह अगली दूध देने की अवधि (लैक्टेशन) में अधिक दूध बना सकें।

  • पशु के चारे में कंसन्ट्रेट (फ़ीड) की मात्रा को धीरे-धीरे कम कर देना चाहिए, जिससे अयन में दूध बनने की क्रिया धीमी पड़ जाए।
  • पशु के दूध को अकस्मात् ही न सुखाकर, धीरे-धीरे सुखाना चाहिए शुरू के 1 हफ्ते में दिन में 1 बार पशु का दूध निकालना चाहिए। फिर 1 दिन छोड़ और फिर 2 दिन छोड़कर दूध निकालना चाहिए, जब तक पशु का दूध पूरी तरह सुख ना जाए।

सारांश

डेयरी व्यवसाय, गरीब व मध्यम वर्गीय किसानों का लम्बे समय से जीविका अर्जित करने का साधन रहा है। इस बदलते पर्यावरण समावेश में, पशुओं की खान-पान और रख-रखाव व्यवस्था पर ध्यान देना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इससे न केवल पशुओं की उत्पादकता और डेरी किसानों की आय पर सकरात्मक प्रभाव पड़ता है, बल्कि जानवरों से इंसानों में होने वाले संक्रमणों के रोक-थाम की संभावनाएं भी बढ़ जाती है।