भारत में पोल्ट्री का संक्षिप्त इतिहास (भाग-8) – इन 75 सालों में पोल्ट्री कहाँ से कहाँ पहुंची?

शब्बीर अहमद खान

पोल्ट्री कंसलटेंट, गुड़गाँव
दूरभाष: 098115-08838

भारत का इतिहास – पोल्ट्री ब्रीडिंग इंडस्ट्री अब दो भागों में बंट चुकी थी। केवल ब्रीडर ही नहीं बंटे थे सरकारी मशीनरी एवं यूनिवर्सिटी के पोल्ट्री से जुड़े प्रोफेसर भी दो भागों में बंट चुके थे। अधिकाँश सरकारी मशीनरी प्योरलाइन ब्रीडिंग के पक्षधर थे जबकि प्रोफेसर जो ब्रीडिंग से जुड़े थे वह प्योरलाइन ब्रीडिंग के पक्षधर थे। बाकी ग्रैंडपैरेंट वालों के पक्षधर थे। स्वर्गीय जनरल नेहरा के साथ एक प्रोफेसर की मीटिंग चल रही थी। सौभाग्य से मैं भी शामिल था। जिसका सारांश यह है कि ‘सर आप प्योरलाइन की चिंता न करें। यह भारत में चल ही नहीं सकती। यह आयातित GP के सामने टिक नहीं सकती। वैसे भी कोई भी विश्व का बड़े से बड़ा या अच्छी जेनेटिक मटेरियल का ब्रीडर अपनी टॉप लाइन्स क्यों देगा ? अगर देगा भी तो निम्न स्तर की लाइन ही देगा’। यह उन्होंने अपने ‘उच्चकोटि’ के विचार जनरल साहब के सामने रखे। सही वक्तव्य था या गलत यह तो भविष्य के गर्भ में था हाँ एक बात जरूर हुई के जनरल साहब के चेहरे से शिकन हट गयी। यहाँ एक बात और बता दूँ डॉक्टर पार्क के प्योरलाइन केग्ग फार्म भारत को दिए जाने से विश्व स्तर के पोल्ट्री ब्रीडरों को भी अचंभित किया। तभी तो स्वर्गीय शेवर ने पार्क को पत्र भेजा जिसका सारांश कुछ इस प्रकार है ‘‘अपना एप्पिल कार्ट तुमने भारत को क्यों दे दिया”?

जैसे पहले लिखा है कि भारतीय ब्रीडर दो धडो में बंट गए थे। पहले 4 पुराने और 4 नए का ग्रुप था। परन्तु केग्ग फार्म के “INDIA WINS FREEDOM” के एड ने सभी GP वालों को झटका दिया और सारे एक हो गए। स्वर्गीय BV राव वेंकटेश्वरा ग्रुप एवं स्वर्गीय अरुण गोयल इसैक्स फार्म नया ग्रुप छोड़ पुराने GP ग्रुप से मिल गए। उन्हें डर था भले सरकार GP को अभी बैन न करे परन्तु कस्टम ड्यूटी काफी बढ़ा सकती है। GP ग्रुप की मीटिंग पर मीटिंग आपस में होने लगी। मंथन होने लगा कि किस प्रकार प्योरलाइन ब्रीडर को पनपने ना दिया जाये? GP ग्रुप को एक बहुत ‘‘होनहार” निडर सेनापति मिल गया था BV RAO के रूप में। यह सेनापति जहाँ कुशल योद्धा था वहीं कम उम्र का भी था। बाकी GP ग्रुप के ‘‘जनरल” रिटायर्ड थे। एक ग्रुप में 6 जनरल थे अर्थात GP में जबकि दूसरी और प्योरलाइन ब्रीडिंग में मात्र 2 जनरल थे। जिस प्रकार का प्रचार पोल्ट्री जगत में फैलाया जा रहा था, उससे लग रहा था कि एक युद्ध महाभारत के स्तर का होना लाजमी है। इसमें कौरव कौन एवम पांडव कौन पाठक सुनिश्चित करें।

GP वालों का ग्रुप बहुत बड़ा था। अतः उनका प्रचार या दुरप्रचार बहुत तेजी से फैल रहा था। इस सेना में स्टंट बाज भी थे, अच्छे वक्ता भी थे, कॉमेडियन भी थे। उन्हें चाँद को सूरज और सूरज को चाँद करने की महारत हासिल थी। काले को सफेद और सफेद को काला दिखा देने की कला आती थी। इनका मुख्या टारगेट केग्ग फार्म था जो पार्कस की-स्टोन लेयर सप्लाई कर रहा था। जितना जुबानी बाण केग्ग फार्म के खिलाफ छोड़े जाते उसका एक चौथाई भी पूना पर्ल्स के खिलाफ नहीं छोड़े जाते। कारण स्पष्ट था। केग्ग फार्म हर प्रकार से सक्षम था इस बिलकुल नए ऑपरेशन अर्थात प्योरलाइन ऑपरेशन के जिसमे ग्रैंडपैरेंट, पैरेंट एवं कमर्शियल लेयर एवं एवं ब्रायलर सभी कुछ उत्पादित हो रहा था। उस समय भारतीय विशेषज्ञ एवं सलाहकार की माने तो प्योरलाइन ऑपरेशन जहाँ लागत बहुत है वहीँ कठिन भी है, जोखिम भरा है और जुए के समान है। वास्तव में भयभीत करने में विदेशी ब्रीडरों का बहुत बड़ा हाथ है। वह नहीं चाहते थे कि कोई भारत जैसा देश स्वालम्बी बने। जब पार्क ने केग्ग फार्म को प्योरलाइन दिया और इसकी चर्चा देश विदेशों में होने लगी तो स्वर्गीय शेवर ने पार्क को एक पत्र लिखा कि ‘‘तुमने  एप्पिल कार्ट कैसे और क्यों भारत को दे दिया?’’ यह पत्र पार्क ने केग्ग फार्म को फॉरवर्ड कर दिया। शेवर के इस वाक्य में बहुत कुछ छुपा हुआ था। बहर हाल केग्ग फार्म के श्री विनोद कपूर, चेयरमैन के अंतर्गत एक बहुत अच्छी टीम बनी जिसमे स्वर्गीय ठाकुर राम अवतार सिंह एवं श्री शशि कपूर जैसे लोग शामिल थे जिनमे लगन थी देश को स्वालम्बी बना कर ही विश्राम लेना है। ब्रीडर के लिए ठाकुर राम अवतार सिंह की अगुवाई में एक बहुत ही अच्छी टीम बनी। सेल और सर्विस की टीम श्री शशि कपूर की लीडरशिप में बनी जिसमे सेल्स पर ही जोर नहीं था बल्कि सर्विस पर भी अधिक जोर था। यह नया कांसेप्ट ‘सेल्स सर्विस के द्वारा’(SALES THROUGH SERVICE) केग्ग फार्म ने ही भारत में प्रारम्भ किया। इस सर्विस के कारण अब केग्ग फार्म दूसरे ब्रीडरों को चैलेंज देने लगा और साथ में उसका वह ऐड “INDIA WINS FREEDOM & WHY IMPORT GP” इन ग्रैंडपैरेंट वालों को अब और विचलित करने लगा और इसके सभी सेनापति रोज आपस में मीटिंग करने लगे कि किस प्रकार से इन प्योरलाइन वालों को धराशाई किय जाये?

रोज इनकी मीटिंग होती रही अंततः तारीख तय हुई, युद्ध स्थल तय हुआ, चीफ गेस्ट का तय हुआ। चीफ गेस्ट बने तत्कालीन देश के कृषि मंत्री सुरजीत सिंह बरनाला। उस समय देश में जनता पार्टी की सरकार थी और मोरार जी देसाई प्रधानमत्री थे। युद्ध स्थल था देश का मशहूर किला लाल किला- दिल्ली। तारीख मुझे याद नहीं परन्तु साल था सन् 1978। अब प्रश्न था भीड़ कैसे जुटाई जाए पोल्ट्री किसानों की? इसमें देश के कोने कोने से किसान लाये जाने थे। हर ग्रैंडपेरेंट ब्रीडर ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। लेकिन अगर मैं गलत नहीं तो स्वर्गीय BV RAO का बहुत बड़ा रोल था। लगभग 70% अकेले उन्होंने ही किसानों को एकत्रित कर दिया।

अधिकाँश किसान पंजाब के थे इसके बाद आंध्र प्रदेश,महाराष्ट्र, कर्नाटका, गुजरात, तमिलनाडु एवं मध्य प्रदेश के थे। वैसे हर प्रदेश से कुछ न कुछ थे। उस जमाने में 300-400 पोल्ट्री किसान इकट्ठा करना बहुत बड़ी बात थी। इसका श्रेय राव साहब को जाता है। पंजाब से तो कई जगहों से अलग अलग पूरी बसें भर कर निर्धारित तिथि पर समय से पहुंचने के लिए निकली। इनमें कबाब शराब का पूरा बंदोबस्त था। बाकी जगह से लोग ट्रेनों में और हवाई जहाज से दिल्ली पहुंचे। अधिकाँश सारा खर्च GP ब्रीडर ने मिलकर किया। बोलने वाले नेता चुने गए। उन्हें प्रैक्टिस करवाई गई क्या बोलना है ? पूरा लाल किला लाल, नीली, पीली पगड़ियों से सुसज्जित हो गया।

समय से मंत्री महोदय आ गए। उनके आवभगत सत्कार के बाद युद्ध शुरू हुआ। यह युद्ध तोप, बन्दूक, गोला बारूद वाला नहीं था। यह जबानी तीरों का था। इन तीरों की बौछारें होने लगी जो पूरी तरह से एक तरफा थी। आयातित GP से मिलने वाली लेयर के ‘‘कसीदे” पढ़े गए जबकि प्योरलाइन ब्रीडरों से प्राप्त लेयर पर बाण पर बाण छोड़े गए। बहुत से डायलॉग रटे रटाये कटाक्ष की शक्ल में इन दो ब्रीडरों के खिलाफ बोले गए जिनमे मुख्य टारगेट केग्ग फार्म और उसकी, की स्टोन लेयर थी। जरा देखिये क्या क्या कहा गया? सभी प्रदेशों से हमला हुआ। यह ब्रीड नयी नयी थी कुछ प्रदेशों में पहुंची भी नहीं थी वहां से भी हमला हुआ। इसी से अंदाजा लगा लें कि यह स्टेजेड था या ड्रामा या प्योरलाइन ऑपरेशन के खिलाफ वास्विकता से कुछ लेना देना नहीं था। सबसे ज्यादा हमला पंजाब ब्रिगेड ने किया था जिनके जबानी बाण काफी धारदार थे। ‘मज्झ (भैंस) बांध लो बजाए यह चूजा डालने के’। ‘खोता इस कुक्कड़ से ज्यादा फायदा देगा’। ‘अंडे के उत्पादन के लिए नहीं खाद के लिए पालना हो तो पाल लो प्योर लाइन से प्राप्त चूजा’ इत्यादि।

आंध्र प्रदेश,महाराष्ट्र, एवं तमिलनाडु के कुछ ज्यादा ही बुद्धिमान थे उन्होंने अपना ज्ञान दिया। ‘कोई असली प्योरलाइन कैसे भारत को दे सकता है’? ‘प्योरलाइन ऑपरेशन को सफल बनाने के लिए हमारे पास धन और सक्षम स्टाफ कहां है’? बहुत सी बातें तो समझ में ही नहीं आ रही थी क्योंकि पूरी लड़ाई एक तरफा होने के बावजूद उल्लास और शोर शराबा अधिक था।

जिस काम के लिए लोग इकठ्ठा हुए थे वह काम हो गया। सरकार ने इसका क्या असर लिया कुछ साफ नहीं था। बरनाला साहब ने भाषण दिया जहां स्वालम्बी बनने की कोशिश जारी रखने की बात उन्होंने कही वहीं अच्छे कम्पटीशन की भी बात कही। ऐसे मौके पर बहुत सूझ बूझ से सरकार काम लेती है। वैसा ही यहाँ बरनाला साहब ने किया। दोनों कैंप लगभग खुश थे। सरकार ने सूझ बूझ से काम लिया। प्योर लाइन कैंप सरकार के निर्णय से खुश था परन्तु जनता (किसान) के आक्रोश को देख कर जरूर कुछ विचलित था। बहर हाल उन्होंने अपना ध्यान काम की और लगाया पोल्ट्री राजनीति की तरफ नहीं। वक्त गुजरता रहा ज्यादा दिन नहीं गुजरा होगा कि एक और इंडस्ट्री में खबर आई कि एक और प्योरलाइन ब्रीडिंग स्टॉक भारत लैंड कर गया है। यह खबर तो आश्चर्य चकित करने वाली अब नहीं थी परन्तु लाने वाला कौन है यह सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। यहाँ तक कि GP ग्रुप वाले भी। यह केवल आश्चर्यचकित ही नहीं बल्कि दुखी भी हो गए कि उनका एक बहुत ही महत्वपूर्ण सेनापति चुप-चाप पाला बदल गया। जिस व्यक्ति ने पूरी एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया लाल किले के युद्ध में प्योरलाइन ब्रीडिंग ऑपरेशन की जड़ें खोदने में। वह एका एक बदल कैसे गए? लाल किले युद्ध की तपिश अभी कम नहीं हुई थी कि “BV 300 लेयर का प्योरलाइन” एवं ब्रायलर ‘‘कॉब-100 का प्योरलाइन” लाकर स्वर्गीय BV RAO ने बड़े नाटकीय अंदाज में इसकी घोषणा की – सबका चकित होना तो लाजमी था। विशेष रूप से उन पोल्ट्री किसानों का जिन्होंने BV RAO के साथ मिल कर लाल किले के युद्ध में प्योरलाइन ब्रीडिंग के खिलाफ जहर उगला था। इस तरह से पाला बदलने से एक बात तो साफ हो गयी कि प्योरलाइन ब्रीडिंग ऑपरेशन में दम तो है। तभी तो ग्रैंडपैरेंट का मुख्य सिपहसालार पाला बदल कर प्योरलाइन ऑपरेशन में स्वयं चला गया। वह भी ढोल-बताशे एवं शोर शराबे के बिना। इसकी खबर भी लोगों को बाद में मिली भारत में स्टॉक लैंड कर जाने के बाद। यह एक देश के लिए अच्छा आगाज बिना गाजे बाजे के हो जाना राव साहब के मिजाज के खिलाफ था। शायद उसी में कुछ भलाई निहित थी या ग्रैंडपैरेंट ग्रुप के साथ जो प्योरलाइन को बर्बाद करने की सौगंध खाई थी उस सौगंध को तोड़ने की ग्लानि ने सब कुछ खामोशी से करने में ही बेहतरी समझी।

भले ही पोल्ट्री ब्रीडिंग इंडस्ट्री उस समय मात्र दो भागों में बंटी थी। आज की तरह नहीं कि हर ब्रीडर के सामने दूसरा ब्रीडर विरोधी है। उस समय जो भी राव साहब के विरोधी थे वह सभी निश्चित रूप से सहमत रहे होंगे या सहमत थे कि डॉक्टर BV RAO ने जबसे पोल्ट्री में नौकरी शुरू किया या अपना ब्रीडिंग फार्म प्रारम्भ किया कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। जिस काम को लेते थे उसे कामयाब करने में हाथ धो कर पीछे पड़े रहते थे। उनका भाग्य उनका साथ देता रहा।

यह उनका भाग्य ही था कि उन्हें BV-300 लेयर एवं कॉब-100 जैसा ब्रायलर मिला। जब भारत में इसका प्रोडक्शन प्रारम्भ हुआ लगभग उसी समय मैरिक्स वैक्सीन विश्व पटल पर आ गयी। मैरिक्स के मामले में यह लेयर अपनी अवरोधक क्षमता कुछ कम होने की प्रचायक थी परन्तु वैक्सीन आने के बाद अपने आप इस समस्या का समाधान हो गया। जब साथ में प्योरलाइन ब्रीडिंग ऑपरेशन शुरू होना था उन्हें डॉक्टर जी.एल.जैन जैसे वैज्ञानिक विशेषज्ञ के रूप में मिल गए। जो आज भी वेंकटेश्वरा ग्रुप के साथ ही हैं। जब ग्रैंडपैरेंट था तब भी और बाद में जब प्योरलाइन ऑपरेशन शुरू हो गया तो भारत में 1 नंबर की लेयर एवं ब्रायलर BV-300 लेयर एवं कॉब-100 सदियों तक बना रहा। मेरा मानना है कि यदि BV-300 लेयर को कोई ऐसी बीमारी न मिले जिसकी अवरोधक क्षमता भिन्न भिन्न हो तो इससे अच्छा उत्पादन आप किसी और ब्रीड से नहीं ले सकते। HH प्रोडक्शन बढ़ाने के चक्कर में हमने निश्चित रूप से अवरोधक क्षमता से कुछ न कुछ समझौता किया है। विशेष रूप से आज भी BV-300 ही मुख्य ब्रीड है। दूसरी नस्ले जैसे BOVANS हर वर्ष BV-300 लेयर को दशकों से बने बनाये साम्राज्य को चुनौती दे रहा है। इसके अतिरिक्त हाईलाइन लेयर जिसका सन् 1960-1970 और 1980 के दशक में पूरे भारत में वर्चस्व कायम था अब पुनः भारत में आ गयी है और गति से प्रसार कर रही है। लोहमन लेयर का भी भारत में प्रसार होने लगा है। इन तीनों का जितना प्रसार होगा उतना ही झटका BV-300 को लगेगा।

सन् 1962 से ही ब्रायलर ने प्रगति का पथ पकड़ लिया था। वैसे उस समय लेयर तेजी से बढ़ रही थी जबकि ब्रायलर स्पीड बहुत कम थी। वैसे ब्रायलर्स को काक्रेलस (मेल्स) भी उस समय चैलंज दे रहा था। ब्रायलर एक दिन के चिक्स की कीमत उस समय 3.50 से 5 रूपए तक होती थी। जबकि काक्रेलस एक रूपए में 4-6 चिक्स तक मिल जाते थे। साथ ही फीड सस्ती थी। FCR में भी अधिक अंतर नहीं था। मुझे याद है कॉलेज के दिनों में अर्थात 1963-1964 जब इंस्टिट्यूट में पहला ब्रायलर लॉट तैयार हो कर निकला तो अखबारों की सुर्खियां बना। तीन KG दाना खा कर 8 सप्ताह में ब्रायलर 1 KG का। यही कारण था काक्रेलस या मेल्स की इंडस्ट्री अपने आप ग्रो कर रही थी। परन्तु आज कि परिस्थिति में ऐसी बात नहीं है। कारण स्पष्ट है फीड बहुत महंगी है एवं FCR पहले जहाँ 3.7 था अब वह 1.4 पर आ गया है। इसी प्रकार समय भी बहुत कम हो गया है। जहाँ 56 दिन ब्रायलर का पहला लाट 1 KG का हुआ था वही अब 22-23 दिन में हो रहा है। अब यह मेल फार्मिंग गावों में चली गयी है जहाँ चरचरा कर यह तैयार हो जाते हैं एवं लघु किसानों को कुछ ऊपरी आमदनी दे जाते हैं। पहले यह मेल्स ब्रायलर उद्योग के लिए चुनौती थे परन्तु अब नहीं। अब ‘क्रोयलेर’ जो केग्ग फार्म ने नाम दिया है जो किसी भी डिक्शनरी में नहीं मिलेगा परन्तु धीरे धीरे ब्रायलर को चुनौती देने योग्य बन रहा है।

भारत की आवश्यकता को देखते हुए हमें 750 ग्राम से लेकर 1500 ग्राम ड्रेसवेट का ब्रायलर अधिक पसंद है। इसी में मन भावन स्वादिष्ट व्यंजन बन सकता है। इसके लिए सौभाग्य से ‘‘कॉब-100 ब्रायलर ब्रीड” वेंकटेश्वरा ग्रुप लगभग 3-4 दशक से भारत में बड़े पैमाने पर सप्लाई कर रहा था। इसने उस समय की प्रख्यात आरब्रेकर ब्रायलर को ही बाजार से नहीं बाहर किया बल्कि छोटे सप्लाईयर को भी परेशान रखा। कसीला फार्म हैदरबाद हब्बर्ड का प्योरलाइन लाया अच्छा चला परन्तु कॉब-100 के बड़े उत्पादन ने केग ब्रो, हबर्ड, स्टारब्रो, इंडियन रिवर, यूनिवर्सल, हाई ब्रो एवं अनक जैसे ब्रायलर को सदैव आतंकित रखा। कारण किसान की पहली पसंद ब्रायलर के लिए कॉब-100 ही थी।

भारतीय किसानों के साथ यह मेरी अपनी जाति पसंद थी। उपभोक्ता की जरूरत को देखते यह कॉब-100 खरा उतरता था। किसान को पालने के लिए एक रफ टफ एवं रगर्ड नस्ल का ब्रायलर चाहिए। यह सारी बातें इसमें खानदानी थी। कैसा भी मौसम हो, कैसा भी फीड हो, कैसा भी मैनेजमेंट हो एवं लीटर कीचड़ बन गया हो इस ब्रायलर ने तैयार होना ही है। पैरेंट ने परफॉरमेंस देनी ही है। इसी कारण इसके चूजे की कीमत कम आती थी। दुखःद है कि सगुना ने जो मछली का काटा फेंका उसमे कॉब-100 आ फंसा। सगुना हैवी ब्रीड ब्रायलर ले आया। प्रारम्भ में उसने बहुत धूम मचाई अपने FCR को ले कर कम समय में अधिक वजन को लेकर। इसमें सदैव सूझ बूझ से काम लेने वाली कंपनी ट्रैप में आ गयी। चलिए कोई बात नहीं आप लाते हैवी ब्रीड परन्तु कॉब-100 को भी रखते और संवारते रहते। तंदूरी एवं करी के लिए यह उत्तम ब्रीड थी जिसके चूजे की उतपादन कीमत भी इन हैवी ब्रायलर से कम थी। जितनी ब्रीड हैवी होती जाएगी उतना चूजा महंगा होगा एवं बीमारी की सम्भावना बढ़ती जाएगी। कारण उनके अंडे की उत्पादन क्षमता कम है एवं हैचविल्टी भी कम है। हैवी ब्रायलर ब्रीड का उत्पादन सही ढंग से एन्वॉयरमेंट कण्ट्रोल हाउसेज में ही लिया जा सकता है। इस कारण कॉब-100 पूर्ण रूप से भारतीय बेशर्म ब्रीड थी जो हर परिस्थिति में श्रेयपूर्वक मुकाबला करती थी। वैसे भी महंगे चूजे ले कर तंदूरी बना कर बेचना कब तक समझदारी का काम है। कॉब-100 चूजे की उत्पादन कीमत कम आती थी क्योंकि दूसरे आर्थिक पैरामीटर के साथ इसकी अंडे की उत्पादन क्षमता एवं हैचविल्टी बहुत अच्छी थी। इसका पूर्ण रूप से भारतीयकरण हो गया था। इस ब्रीड को तो वेंकटेश्वरा के टॉप मैनेजमेंट ने निकाल बाहर किया परन्तु दुःख पता नहीं क्यों बहुत अधिक हुआ ? यदि आज भी उसकी कुछ लाइन कोने कतरे में पड़ी हो तो पुनः कॉब-100 को जीवित करना चाहिए।

इस प्रकार पोल्ट्री इंडस्ट्री का सफर सफलता असफताओं के साथ आगे बढ़ता रहा। उतार चढ़ाव भी होते रहे। फिर भी यदि किस्मत (LUCK) की बात करें तो BV RAO एवं उनके वेंकटेश्वरा ग्रुप की निश्चित रूप से चमक रही थी। सबसे बड़ी बात उन्हें डॉक्टर जैन जैसा वैज्ञानिक ब्रीडिंग के लिए मिल गया था। इसके अतिरिक्त और भी डेडिकेटेड वर्कर्स कंपनी में आ चुके थे। बाकी अगले अंक में।